Mai Gaon Se Hun: कहा जाता है कि ढोल सागर में प्रकृति, देवता, मानव और त्योहारों को समर्पित 300 से ज्यादा ताल हैं। तो आइये आज आपको एक नई प्रतिभा से मिलवाता हूँ। प्रतिभा इसलिए क्योंकि व्यक्तित्व हर व्यक्ति का होता है लेकिन प्रतिभाएं विशेष व्यक्ति में होती हैं। उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल के ग्राम देवन, लालूर, जौनपुर के रहने वाले श्री सेवक दास जी जब ढोल पर थाप देते हैं तो देवता भी अवतरित होकर नृत्य करने लगते हैं। ढोल सागर का उनका ज्ञान वंशानुगत है, सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर मंदिर में जाकर नमेती करना उनका प्रतिदिन का नियम है।
ढोल और दमाऊं एक तरह से मध्य हिमालयी यानी उत्तराखंड के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कहीं कोई संस्कार या सामाजिक गतिविधि नहीं जो ढोल और इन्हें बजाने वाले ढाकी/बाजगी या ढोली के बगैर पूरा होता हो।
इनकी गूंज के बिना यहां का कोई भी शुभकार्य पूरा नहीं माना जाता है। चाहे फिर वो शादी हो या सांस्कृतिक मेले/कार्यक्रम। आज भी खास अवसरों, धार्मिक अनुष्ठानों और त्योहारों में इनकी छाप देखने को मिलती है, चूंकि पहाड़ में संस्कृति आज भी जीवंत है।
ढोल दमाऊं उत्तराखंड के प्राचीन वाद्य यंत्र है। यह दोनों तांबे से बने होते है और दोनों को साथ ही बजाया जाता है। ढोल को प्रमुख वाद्य यंत्र में इसलिए शुमार किया गया कि इसके जरिए जागर और नमती/चांसिण लगाते समय इसके माध्यम से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है।
पहाड़ में होने वाली मंगनी और शादी के दौरान बाजगी ढोल बजाकर खुशी का एक माहौल तैयार कर देते है तथा इनकी गूंज से मेहमानों का स्वागत किया जाता है। खास बात यह होती है कि शादी में दोनों पक्षों वर और कन्या के अपने अपने बाजगी होते हैं। वर पक्ष वाले जब घर से निकलते हैं तो ढोल-दमाऊ और रणसिंगा बजा कर ख़ुशी का इज़हार किया जाता है, ठीक उसी तरह कन्या पक्ष के बाजगी अपने यहां अतिथियों का ढोल से स्वागत करते हैं।
रात होने पर उनके द्वारा नोबत/नमती लगाई जाती है। नोबत ढोल-दमाऊ की विभिन्न थाप के जरिये बजाये जाने वाले कुछ विशेष ताल होते हैं। लेकिन बदलते वक्त के साथ यहां के गीत संगीत कुछ धूमिल से होते जा रहे हैं और पुराने वाद्य यंत्रों की जगह आधुनिक वाद्य यंत्रों ने पुरातन संस्कृति को गौण कर दिया है।
प्रोत्साहन नहीं मिलने से ये संस्कृति धीरे-धीरे समाप्ति की ओर जा रही है, जिसमे हुड़का और हुड़का वादकों को बिल्कुल भी प्रोत्साहन नही दिया जाता। हुड़के का प्रयोग जागर, झोड़ा, छपेली, चांचरी, बौल-रमौल, बैर-भगनौल में किया जाता है। हुड़के से निकलने वाली 22 तालों की गूंज लोक संगीत का दर्शन कराती है। संस्कृति का अहम हिस्सा होने के नाते हमे इस बात का संज्ञान भी लेना होगा।